उदास शाम
उतर आती है
हर रोज आँगन में
अपने स्याह आँचल में
लेकर कुछ पीले पड़े
तपती दुपहरी के फूल
घर लौटते
चहचहाते पक्षियों के
कुछ टूटे हुए पंख
तूफानों की सरपरस्त
हवा के झोंकों में
उड़ते कुछ घास के तिनके
और अलगनी पर सूखते
तार-तार होते
कपड़ों के पैबंद...
उतर आती है
हर रोज आँगन में
अपने स्याह आँचल में
लेकर कुछ पीले पड़े
तपती दुपहरी के फूल
घर लौटते
चहचहाते पक्षियों के
कुछ टूटे हुए पंख
तूफानों की सरपरस्त
हवा के झोंकों में
उड़ते कुछ घास के तिनके
और अलगनी पर सूखते
तार-तार होते
कपड़ों के पैबंद...
छोड़ जाती है
मेरे दरवाजे पर
तमाम दुपहरी की
खींझ, गुस्सा और
अकेलापन
और लौट पड़ती है
धानी चुनर ओढ़े
साँवली बदली के साथ
रात के गहरे अंधेरे में
और मैं
घड़ी की सुइयों से बनी
बुहारी से
सब झाड़ बुहार कर
लगा देती हूँ ढेर
अपनी बगीची में
और लांघ जाती हूँ
शाम को
निशब्द, निर्विकार
बीत गये है
अनंत दिन
इसी तरह...
शाम हर रोज
आती है कभी
धुंए के साथ,
रह-रह कर चमक उठती
चिंगाारियों के साथ,
राख की उड़ती कालिमा,
पैरों की ठोकरों से
झरते पत्तों के साथ...
और मेरा मौन
बढ़ाता रहता है
शब्दों से अंतराल
कभी-कभी हो जाती हूँ
बुहारते दुःखों को देख
निश्चेष्ट ..........
फिर सोचती हूँ
कभी तो आएगी
सांझ अपनी हथेलियों में
तितलियों के रंगों को दाब
तूफान के बाद आती
बारिष की नन्हीं बूंदों संग
कामना के बीज
मेरी बगीची में डाल
उम्मीदों की कलम बोने
तब मेरा मौन
आलाप में बदल जाएगा
और सुरों की विरासत में
एक अध्याय
जुड़ने को आतुर हो जाएगा
तब शायद
भोर की किरणें
आलोकित कर देगी
मेरी कोठरी के
धुंध भरे कोनों को...।
.......................................स्वर्णलता
अनुभूति में प्रकाशित ...
मेरे दरवाजे पर
तमाम दुपहरी की
खींझ, गुस्सा और
अकेलापन
और लौट पड़ती है
धानी चुनर ओढ़े
साँवली बदली के साथ
रात के गहरे अंधेरे में
और मैं
घड़ी की सुइयों से बनी
बुहारी से
सब झाड़ बुहार कर
लगा देती हूँ ढेर
अपनी बगीची में
और लांघ जाती हूँ
शाम को
निशब्द, निर्विकार
बीत गये है
अनंत दिन
इसी तरह...
शाम हर रोज
आती है कभी
धुंए के साथ,
रह-रह कर चमक उठती
चिंगाारियों के साथ,
राख की उड़ती कालिमा,
पैरों की ठोकरों से
झरते पत्तों के साथ...
और मेरा मौन
बढ़ाता रहता है
शब्दों से अंतराल
कभी-कभी हो जाती हूँ
बुहारते दुःखों को देख
निश्चेष्ट ..........
फिर सोचती हूँ
कभी तो आएगी
सांझ अपनी हथेलियों में
तितलियों के रंगों को दाब
तूफान के बाद आती
बारिष की नन्हीं बूंदों संग
कामना के बीज
मेरी बगीची में डाल
उम्मीदों की कलम बोने
तब मेरा मौन
आलाप में बदल जाएगा
और सुरों की विरासत में
एक अध्याय
जुड़ने को आतुर हो जाएगा
तब शायद
भोर की किरणें
आलोकित कर देगी
मेरी कोठरी के
धुंध भरे कोनों को...।
.......................................स्वर्णलता
अनुभूति में प्रकाशित ...